‘अरे ऑपरेशन क्या
मंत्री करते हैं, जो मृतकों की जिम्मेदारी उन पर डाल कर उन्हें हटा दिया जाए?’ ऐसा बयान दिया मुख्यमंत्री
डॉ. रमन सिंह ने, जब बात नसबंदी कांड में स्वास्थ्य मंत्री की जवाबदेही की आई। वो
भी एक दौर था जब रेल दुर्घटना की वजह से लाल बहादुर शास्त्री जी ने रेल मंत्री पद
से इस्तीफा दे दिया था और ये भी एक दौर है जब 15 घर उजड़ गए, युवक विधुर हो गए और
दुधमुंहे बच्चे मातृविहीन हो गए हैं। पर सरकार है कि अपने चहेते मंत्री को
बचाने के लिए कांड का सारा ठीकरा आरोपी डॉक्टर पर फोड़ कर बच निकलना चाहती है।
छत्तीसगढ़ का चिकित्सा विभाग तो मानो ढीठ ही हो गया हो। नेत्र शिविर का
आंखफोड़वा कांड हो या महिला शिविर में गर्भाशय निकालने का प्रकरण या हाल ही में
सालों से बंद पड़े अस्पताल भवन में नसबंदी शिविर का आयोजन। इनमें कितनी महिलाओं ने
अपने गर्भाशय गंवाए, कितने लोगों की आंखो की रोशनी चली गई और कई अपनी जान से हाथ
धो बैठे।
नसबंदी प्रकरण की जांच के लिए सरकार ने आयोग का गठन कर दिया है। हालांकि, आयोग
का गठन तो बस्तर में कांग्रेसी नेताओं की हत्या, कोरबा के चिमनी कांड और भिलाई
इस्पात संयंत्र के गैस रिसाव कांड के लिए भी हुआ था। वैसे आयोगों का गठन तो हर
प्रकरण के बाद होता है, पर रिपोर्ट किसी की नहीं आती। आयोग का गठन करके मुद्दे
दबाने में तो रमन सरकार को महारत हासिल है।
जिस प्रकार यातायात नियंत्रण के नाम पर वाहनों की धर-पकड़ को टारगेट पूरा करने
के रूप में देखा जाता है, उसी तरह सरकारें नसबंदी अभियानों को भी एक निर्धारित
संख्या पूरी करने के रूप में लेती है। तभी तो स्वास्थ्य मंत्री के गृहजिले में
फर्नीचर, उपकरण और तकनीकी साधनों रहित गंदगी भरे भवन में नसबंदी शिविर का आयोजन कर
दिया गया और मंत्री जी इसे सिर्फ डॉक्टरों की लापरवाही मान रहे हैं। क्या
स्वास्थ्य मंत्री होने के नाते उनका संवैधानिक और प्रशासनिक कर्तव्य केवल फोटो
खिंचवाते, फीता काटते, घोषणाएं करते विज्ञापनों में दिखना ही है। अपने क्षेत्र के
अस्पतालों में जाकर स्वास्थ्य सेवाओं के क्रियान्वयन का अवलोकन करना उनका कर्तव्य
नहीं है?
पूरे प्रशासन की बेशर्मी तो देखिए कि टारगेट पूरा करने की धुन में उन्होंने
बैगा जनजाति को भी नहीं बख्शा। छत्तीसगढ़ की इस आदिवासी जनजाति को संविधान की ओर
से संरक्षण प्राप्त है। देश में इनकी संख्या बहुत कम रह गई है, ऐसे में इनकी
नसबंदी करना एक अपराध है। लापरवाही के चलते बैगा जनजाति की एक महिला की ऑपरेशन के
बाद मौत हो गई और कई अन्य महिलाएं अभी भी जिंदगी और मौत के बीच झूल रही हैं। इस कांड
में जो भी शामिल हैं, सभी छत्तीसगढ़ की परिस्थितियों से वाकिफ हैं। उस पर भी इस
तरह की कायराना हरकत इन्हें दरिंदो की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है।
गिरफ्तार हुए आरोपी डॉक्टर अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं, ‘गलती दवा कंपनी से खरीदी
गईं घटिया दवाइयों की है।’ अब क्या इसके लिए भी स्वास्थ्य मंत्री जिम्मेदार नहीं हैं? ब्लैक लिस्टेड दवा
कंपनियों के बदनाम प्रकरण मंत्रियों के संज्ञान में ना हों, ऐसा संभव ही नहीं है।
इसके बाद भी अगर वो अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, तो धन्य हैं मंत्री जी और साथ ही
उन्हें आश्रय देने वाले माननीय मुख्यमंत्री जी।
देखा जाए तो छत्तीसगढ़ सरकार ने लापरवाही की सारी हदें पार कर दी हैं। विभिन्न
सरकारी चिकित्सा शिविरों का आयोजन तो करवा दिया जाता है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं
का अवलोकन नहीं किया जाता। अंखफोड़वा कांड और महिलाओं के गर्भाशय निकालने वाले
कांड इसके उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ की जनता में अब खौफ सा बैठ गया है। सरकारी
अस्पताल हो या शिविर, जनता इलाज कराने में खौफ खाने लगी है।
जिस राज्य का मुख्यमंत्री स्वयं एक डॉक्टर हो, उस राज्य में चिकित्सा संबंधी
ऐसे भयावाह प्रकरण देखने को मिलेंगे, ये उम्मीद तो नहीं थी। अपने मुख्यमंत्री के
प्रति तीन बार वफादारी दिखा चुकी सीधी-सादी छत्तीसगढ़ी जनता के हिस्से खौफ और धोखे
जैसी चीजें आएंगे, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
जिन्होंने आंखे गंवाई, वो अब दुनिया नहीं सिर्फ सपने देखते हैं। कई महिलाएं तो
अपनी कोख में बच्चे पालने का सपना भी छोड़ चुकी हैं। सत्ता का प्याला पिए सो रही
सरकार अपनी क्रेडिबिलिटी का दंभ भरती है। देखना ये है कि सरकार की ये कुंभकर्णी
नींद कब टूटती है।
वैसे एक बात तो तय है कि ज़ुल्म करने वाले, ज़ुल्म सहने वाले दोनों का कोई मज़हब नहीं होता। मरता भी इन्सान है और मारता भी इन्सान है।