शनिवार, 22 नवंबर 2014

डॉक्टर या यमदूत: अब अस्पताल जाने से भी खौफ खाती है जनता



अरे ऑपरेशन क्या मंत्री करते हैं, जो मृतकों की जिम्मेदारी उन पर डाल कर उन्हें हटा दिया जाए?’ ऐसा बयान दिया मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने, जब बात नसबंदी कांड में स्वास्थ्य मंत्री की जवाबदेही की आई। वो भी एक दौर था जब रेल दुर्घटना की वजह से लाल बहादुर शास्त्री जी ने रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और ये भी एक दौर है जब 15 घर उजड़ गए, युवक विधुर हो गए और दुधमुंहे बच्चे मातृविहीन हो गए हैं। पर सरकार है कि अपने चहेते मंत्री को बचाने के लिए कांड का सारा ठीकरा आरोपी डॉक्टर पर फोड़ कर बच निकलना चाहती है।




छत्तीसगढ़ का चिकित्सा विभाग तो मानो ढीठ ही हो गया हो। नेत्र शिविर का आंखफोड़वा कांड हो या महिला शिविर में गर्भाशय निकालने का प्रकरण या हाल ही में सालों से बंद पड़े अस्पताल भवन में नसबंदी शिविर का आयोजन। इनमें कितनी महिलाओं ने अपने गर्भाशय गंवाए, कितने लोगों की आंखो की रोशनी चली गई और कई अपनी जान से हाथ धो बैठे।

नसबंदी प्रकरण की जांच के लिए सरकार ने आयोग का गठन कर दिया है। हालांकि, आयोग का गठन तो बस्तर में कांग्रेसी नेताओं की हत्या, कोरबा के चिमनी कांड और भिलाई इस्पात संयंत्र के गैस रिसाव कांड के लिए भी हुआ था। वैसे आयोगों का गठन तो हर प्रकरण के बाद होता है, पर रिपोर्ट किसी की नहीं आती। आयोग का गठन करके मुद्दे दबाने में तो रमन सरकार को महारत हासिल है।
जिस प्रकार यातायात नियंत्रण के नाम पर वाहनों की धर-पकड़ को टारगेट पूरा करने के रूप में देखा जाता है, उसी तरह सरकारें नसबंदी अभियानों को भी एक निर्धारित संख्या पूरी करने के रूप में लेती है। तभी तो स्वास्थ्य मंत्री के गृहजिले में फर्नीचर, उपकरण और तकनीकी साधनों रहित गंदगी भरे भवन में नसबंदी शिविर का आयोजन कर दिया गया और मंत्री जी इसे सिर्फ डॉक्टरों की लापरवाही मान रहे हैं। क्या स्वास्थ्य मंत्री होने के नाते उनका संवैधानिक और प्रशासनिक कर्तव्य केवल फोटो खिंचवाते, फीता काटते, घोषणाएं करते विज्ञापनों में दिखना ही है। अपने क्षेत्र के अस्पतालों में जाकर स्वास्थ्य सेवाओं के क्रियान्वयन का अवलोकन करना उनका कर्तव्य नहीं है?




पूरे प्रशासन की बेशर्मी तो देखिए कि टारगेट पूरा करने की धुन में उन्होंने बैगा जनजाति को भी नहीं बख्शा। छत्तीसगढ़ की इस आदिवासी जनजाति को संविधान की ओर से संरक्षण प्राप्त है। देश में इनकी संख्या बहुत कम रह गई है, ऐसे में इनकी नसबंदी करना एक अपराध है। लापरवाही के चलते बैगा जनजाति की एक महिला की ऑपरेशन के बाद मौत हो गई और कई अन्य महिलाएं अभी भी जिंदगी और मौत के बीच झूल रही हैं। इस कांड में जो भी शामिल हैं, सभी छत्तीसगढ़ की परिस्थितियों से वाकिफ हैं। उस पर भी इस तरह की कायराना हरकत इन्हें दरिंदो की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है।
गिरफ्तार हुए आरोपी डॉक्टर अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं, गलती दवा कंपनी से खरीदी गईं घटिया दवाइयों की है। अब क्या इसके लिए भी स्वास्थ्य मंत्री जिम्मेदार नहीं हैं? ब्लैक लिस्टेड दवा कंपनियों के बदनाम प्रकरण मंत्रियों के संज्ञान में ना हों, ऐसा संभव ही नहीं है। इसके बाद भी अगर वो अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, तो धन्य हैं मंत्री जी और साथ ही उन्हें आश्रय देने वाले माननीय मुख्यमंत्री जी।
देखा जाए तो छत्तीसगढ़ सरकार ने लापरवाही की सारी हदें पार कर दी हैं। विभिन्न सरकारी चिकित्सा शिविरों का आयोजन तो करवा दिया जाता है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं का अवलोकन नहीं किया जाता। अंखफोड़वा कांड और महिलाओं के गर्भाशय निकालने वाले कांड इसके उदाहरण हैं। छत्तीसगढ़ की जनता में अब खौफ सा बैठ गया है। सरकारी अस्पताल हो या शिविर, जनता इलाज कराने में खौफ खाने लगी है।
जिस राज्य का मुख्यमंत्री स्वयं एक डॉक्टर हो, उस राज्य में चिकित्सा संबंधी ऐसे भयावाह प्रकरण देखने को मिलेंगे, ये उम्मीद तो नहीं थी। अपने मुख्यमंत्री के प्रति तीन बार वफादारी दिखा चुकी सीधी-सादी छत्तीसगढ़ी जनता के हिस्से खौफ और धोखे जैसी चीजें आएंगे, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा।

जिन्होंने आंखे गंवाई, वो अब दुनिया नहीं सिर्फ सपने देखते हैं। कई महिलाएं तो अपनी कोख में बच्चे पालने का सपना भी छोड़ चुकी हैं। सत्ता का प्याला पिए सो रही सरकार अपनी क्रेडिबिलिटी का दंभ भरती है। देखना ये है कि सरकार की ये कुंभकर्णी नींद कब टूटती है।

वैसे एक बात तो तय है कि ज़ुल्म करने वाले, ज़ुल्म सहने वाले दोनों का कोई मज़हब नहीं होता। मरता भी इन्सान है और मारता भी इन्सान है।

बुधवार, 12 नवंबर 2014

वफादार जनता से रमन की बेवफाई!


जाने यह कैसी विडम्बना है कि हमारे लोकतंत्र का प्रमुख हिस्सा होने के बाद भी देश के मध्यम वर्गीय तबके को हमेशा से अनदेखा किया जाता रहा है. वैसे भी सिर्फ अनदेखी बल्कि छल, कपट और धोखा अगर किसी वर्ग के साथ सबसे अधिक हुआ है तो वह भी यह मध्यम वर्ग ही है. सरकारी योजनाएं हों या चुनावी सभाएं या फिर नए प्रधानमंत्री का देशवासियों को किया प्रथम सम्बोधन. इस तबके को हर जगह निराशा ही हाथ आई हैहमारे देश के इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी गैर कांग्रेसी  दल को जनता ने पूर्ण बहुमत से संसद में सरकार बनाने का मौका दिया. इस जनादेश में प्रमुख योगदान मध्यम वर्गीय परिवारों का ही माना जा रहा है. यही कारण है कि इस वर्ग को अपने नए प्रधानमंत्री से खुद के दिन संवरने की उम्मीदें बंध गईं थीं. उस भाषण में गाँव, गरीब, दलित, शोषित, वंचित और महिलाएं थी. अगर कोई नहीं था तो उसी मध्यम वर्ग का ज़िक्र.
आज  मध्यम वर्गीय परिवारों के लाखों युवा बेरोज़गारी की मार झेल रहे हैं, परंतु सेंट्रल हॉल से दिए गए 55 मिनट के उस भाषण में अपना कहीं भी ज़िक्र पाकर यह वर्ग भौंचक्का रह गया. हरियाणा के रेवाड़ी से मोदी जी ने अपनी चुनावी सभाओं का आगाज़ किया और तभी से देश भर के मध्यम वर्गीय परिवारों की उम्मीदें बंधनी शुरू हो गई थीं, जो हर बीतते दिन और सभा के साथ बढ़ती चली गईं. ये अपेक्षाएं हीं थीं, जिन्हें जनता ने वोटों के माध्यम से ज़ाहिर किया। नतीजन, आज एक दल अपने बलबूते पर सरकार चला रहा है. वहीँ दूसरी ओर, 125 साल से पुराना दल जनता की निराशा का शिकार हो गया.
इस कड़ी में अगर छत्तीसगढ़ राज्य के मध्यम वर्गीय परिवारों की बात की जाए, तो उनकी हालत नीम चढ़े करेले जैसे दिखती  है.  इसके जनक स्वयं प्रदेश के मुखिया डा. रमन सिंह  हैंराज्य के यशस्वी मुख्यमंत्री जी भी अब बाकी राजनेताओं के रंग में ढलते प्रतीत हो रहे हैं. राज्य में विकास और जनता की मूलभूत सुविधाओं को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाने और उनके क्रियान्वयन में माहिर मुख्यमंत्री अब छल, फरेब की राजनीति से अछूते नहीं रह गए हैं. राज्य सरकार के अधीनस्थ कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु में वृद्धि का मामला मुख्यमंत्री  की कार्यशैली में आए बदलाव का सीधा उदाहरण है. उल्लेखनीय है कि 2013 विधानसभा चुनाव में आचार संहिता लागू होने के महज़ पखवाड़े भर पहले मुख्यमंत्री  ने राज्य कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु 60 से बढ़ाकर 62 वर्ष करने की घोषणा की थी. परन्तु अखबारों के माध्यम से रही खबरों की  मानें, तो नई केंद्र सरकार से जब राज्य सरकार ने अतिरिक्त धन मांगा, तो केंद्र ने राज्य सरकार को अपनी घोषणा वापस लेने अर्थात् कर्मचारियों की आयु सीमा 62 से घटाकर 60 वर्ष करने के निर्देश दिए. साल भर पूर्व की गई इस घोषणा से सेवानिवृत्ति की दहलीज पर खड़े कर्मचारियों के चेहरे  खिल गए थे और विधानसभा चुनाव में कर्मचारियों ने वोटों के जरिए अपनी खुशी और वफादारी का इजहार किया। इसी का नतीजा था कि डा. रमन सिंह ने विधानसभा चुनाव में जीत की हैट्रिक लगाई.

गौरतलब है कि 2013 विधानसभा चुनाव के पूर्व पूरे राज्य में सत्ता परिवर्तन की बयार थी. शायद यही वजह है कि रमन सरकार ने जनता को लुभाने के लिए आनन-फानन में कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति आयु सीमा में वृद्धि की घोषणा कर दी थी, लेकिन 2008 की अपेक्षा 2013 में रमन एंड कंपनी के वोट प्रतिशत में कमी आयी. जहां 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के मत प्रतिशत का अंतर 1.24% था, वहीं 2013 आते-आते ये अंतर महज़ 0.75% ही रह गया. इस लिहाज़ से देखें तो यह घोषणा रमन सरकार के लिए ट्रंप कार्ड साबित हुई, जिसके बूते उनकी सरकार की नैय्या पार लगी.

अब मुख्यमंत्री सीमा वृद्धि से होने वाले अतिरिक्त वित्तीय भार का हवाला देकर पल्ला झाड़ने के मूड में  नज़र रहे हैं. अगर ये कदम उठाया गया, तो यह जनता के साथ किया गया एक भद्दा मजाक होगा और इसके लिए जनता उन्हें शायद ही माफ़ करे. एक जिम्मेदार सरकार से जनता यह अपेक्षा करती है कि कोई भी घोषणा करने के पूर्व सरकार उसके हरेक पहलू को ध्यान में रखेगी. लेकिन राजनीतिक लाभ पाने के लालच में की गई इस घोषणा की अब पोल खुलती दिख रही है.
वैसे संभावनाओं को टटोला जाए, तो नजर आ रहा है कि अब रमन सरकार इस साल के अंत में होने वाले नगरीय निकाय चुनाव के खत्म होने का इंतजार कर रही है. चुनाव परिणाम जो भी हों, घोषणा वापस लेने में सरकार जरा सी भी हिचकिचाहट नहीं दिखाएगी.
ऐसे में भविष्य में की जाने वाली सरकार की किसी भी घोषणा को उसके हर एक कोण से देखे जाने की आवश्यकता है. ऐसा ना हो कि वह भी क्षणभंगुर साबित हो और चुनावी हित साधने के बाद उसे भी वापस ले लिया जाए.
मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद इंक्रिडिबल इंडिया की तर्ज पर छत्तीसगढ़ को क्रेडिबल का दर्जा देने वाले डॉ. रमन जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं। और अब इस मध्यम वर्ग को देखते ही मेरे जेहन में ना जानें क्यों सलमा आगा की दो पंक्तियां बरबस ही आ जाती हैं...

" दिल के अरमान आंसुओं में बह गए, हम वफ़ा कर के भी तनहा रह गए "