बुधवार, 8 अगस्त 2018

मुल्क 'हम' और 'वो' नहीं बनाते, मुल्क 'हम' से ही बनता है।


अगर आप धर्म समझते हैं, सम्प्रदाय समझते हैं, रिश्ते समझते हैं, पुलिसिया कार्यवाही समझते हैं, कोर्ट-कचहरी की प्रक्रिया समझते हैं और अगर आप भारत को समझते हैं तो आपको अनुभव सिन्हा निर्देशित फ़िल्म ‘मुल्क’ ज़रूर देखनी चाहिये। जब एक घर का युवा पथभ्रामित हो जाता है तो उसपर और उसके परिवार वालों पर क्या बीतती है। परिस्थितियां क्या थीं, और क्या हो जाती हैं इन बातों का बारीकी से उल्लेख किया गया है इस फ़िल्म में।


पहले ही सीन (नुक़्ते की एहमियत) से आपको आभास हो जाएगा कि आने वाले ढाई घण्टे में यह फ़िल्म कितनों ही बार आपकी दिमागी नसों को झकझोरने वाली है। आप नुक़्ते की एहमियत पर सोचते ही रहेंगे तभी मोहम्मद परिवार की इकलौती बहू ‘आरती’ से आपका परिचय होगा। आप दिमाग चलाते रहिये तभी अली मोहम्मद की बहू, दाढ़ी-टोपी वाले अपने श्वसुर के जन्मदिन पर टिका लगाकर उनकी आरती करती आपके सामने आ जाती है। महज़ पन्द्रह मिनट में ही निर्देशक अनुभव सिन्हा ने बता दिया कि बचे दो घण्टे में आपकी भौएँ कई दफ़े खड़ी होने वाली हैं। हालांकि जिस परिवेश में, जिस संस्कृति में, जिस सामाजिक ताने- बाने में भारतीय समाज गुथा हुआ है उसमें ये चीजें हमें आश्चर्यचकित नहीं करनी चहिये परन्तु पिछले कुछ सालों में जो वातावरण हमारे-आपके इर्दगिर्द रहा है उसमें आश्चर्य करना हमारी मजबूरी हो जाती है।

मुल्क एक ऐसे मुस्लिम परिवार की कहानी है जिसका एक 20-25बरस का जवान लड़का 'शाहिद' ऐसे लोगों के सम्पर्क में आ जाता है जो खुद पथभ्रमित हैं, साथ ही ‘जिहाद’ के नाम पर ऐसे युवाओं को बरगला कर उन्हें भी इस खूनी खेल का हिस्सा बना लेते हैं। इसे शिक्षा का अभाव कहें या हमारे सामाजिक तानेबाने में आया बदलाव, कारण जो भी हो परिणाम नफ़रत, खून-ख़राबा, विश्वासघात और मौत ही है। ऐसे युवा स्वयं तो भटक जाते हैं परन्तु अपने पीछे अपने परिवार को किस हालात पर, किन परिस्थितियों का सामना करने छोड़ जाते हैं, इसकी कहानी है मुल्क।

आज़ादी उपरांत हुए देश के विभाजन ने, मज़हब के नाम पर हुए पाकिस्तान के निर्माण ने हमारे समाज में नफ़रत के इतने बीज बो दिये कि उन नफ़रत के बीजों से जन्मे पेड़ बढ़ती आयु के साथ मजबूत होते जा रहे हैं। उनकी जड़ें मजबूत होती जा रही हैं और सबसे अधिक चिन्ता का विषय है कि उन पेड़ों पर लगे फ़ल/फूल भी नफ़रत की नई बीजों को जन्म दे रहे हैं। जो कि हमारे भारतीय समाज के लिये बेहद हानिकारक हैं। हमें समझना होगा कि कट्टरता चाहे जिस भी रूप में हो, जिस भी धर्म में हो, जिस भी समाज में हो वह सभी के लिये हानिकारक ही है। उसके सकारात्मक परिणाम कदापि नहीं मिल सकते। कट्टरता और नकारात्मकता एक दूसरे के पूरक हैं और ये दोनों चीजें इंसान को, धर्म को, समाज को गर्त में ले जाती हैं।

यह फैल रही नकारात्मकता का ही परिणाम है कि, एक रात पूर्व तक अली मोहम्मद के जन्मदिन की दावत खाते चौबेजी भी अगली सुबह अली मोहम्मद पर, उसके परिवार पर आतंकवादी होने का तमगा लगाने से नहीं चूकते। कल तक सुबह की पहली चाय पिलाने वाला चौरसिया अगली सुबह तिरछी नजरों से अली मोहम्मद को देखकर नज़रें फेर लेता है। पर इसी समाज में, इसी मोहल्ले में एक सोनकर भी है जिसे पूरा विश्वास है कि वह नौजवान, जिसे आज सब आतंकवादी कह रहे हैं, उसके पथभ्रमित होने में उस युवक का दोष है, ना कि उस अली मोहम्मद का और ना ही उसके परिवार का। लेकिन अली मोहम्मद जानता है कि ख़ुद पर और अपने परिवार पर शाहिद का साथ देने, देश से गद्दारी करने का आरोप जो इनके ऊपर लग चुका है, उससे बरी होना और दाग़ धुलने का रास्ता कोर्ट से होकर गुजरता है। और इस प्रक्रिया में उसकी बहु आरती भी साथ जूझ रही है।


अग़र कहानी को समझते हुए आप बैकग्राउंड में चल रहे गाने को सुनेंगे तब आपको निर्देशक पर, लेखक जिसने गाने के बोल लिखे हैं उसपर और गायक जिस ने शिद्दत से उसे गाया है उनसब के साथ आपको भारतीय सिनेमा पर गर्व ज़रूर होगा। आप अग़र ध्यान देंगे तो हो सकता है कि इसबीच आंसू आपकी पलकों पर आकर ठहर से गए हों। फिर जब एक बहु अपने श्वसुर को बेगुनाह साबित करने उनकी (हिन्दू बहू अपने मुसलमान श्वसुर की) पैरवी करेगी, कोर्ट को समाज को, यह साबित करने दलीलें देती रहेगी कि उस युवक ने जो किया वह कहीं से सही नहीं है। पर उसके कर्मों की सज़ा उसके परिवार को देना और पूरे परिवार को आतंकवादी होने का आरोप लगाना, उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाना, उनके इतिहास पर, उनके धर्म पर सवाल उठाना भी कहीं से जायज़ नहीं। और मैं दावे के साथ कहता हूं कि पलकों पर आकर रुके उन आंसुओं को बहने से अब आप चाहकर भी नहीं रोक पाएंगे।

हमारे भारतीय समाज पर हम सभी को गर्व है। अनेकता में एकता हमारी पहचान है और यही सबसे मजबूत नींव भी है जिस पर हम और हमारा समाज टिका हुआ है। परन्तु अपना व्यक्तिगत स्वार्थ साधने  कुछ असामाजिक तत्व इस मजबूत नींव को कमजोर करने में लगे रहते हैं। कभी छुआ-छूत के माध्यम से, कभी जातिवाद के माध्यम से तो कभी धर्म/सम्प्रदाय के माध्यम से। ज़रूरत है ऐसे लोगों की गंदी मंशाओं को समझकर उनके फैलाये जाल में ना फंसने की और एकजुट होकर इनका सामना करने की। सच्चाई पर अडिग रहना और एकजुटता से हर विपरीत शक्ति से ना केवल बचा जा सकता है बल्कि उन नफ़रत के पेड़ों को उखाड़ फेंका जा सकता है ताकि उनमें नफ़रत के फल-फूल भविष्य में कभी उगे ही ना।



फ़िल्म का निर्देशन हो, पटकथा हो, कास्टिंग हो, गाने हों या, डायलॉग्स हों सभी अद्भुत हैं। निर्देशक ने बड़ी ही बारीकी से हर पहलू को छुआ है। एक्टिंग की बात की जाए तो ऋषि कपूर, आशुतोष राणा, नीना गुप्ता, रजत कपूर, मनोज पहावा, कुमुद मिश्रा ये लोग खुद में एक्टिंग की पाठशाला हैं तो टिप्पणी करने की गुंजाइश ही नहीं है। रही बात बहु आरती का क़िरदार निभा रही तापसी पन्नू की तो अगर आपने पिंक, नाम शबाना, सुरमा देखी होगी तो अन्दाजा होगा आपको कि यह अदाकारा इतने कम समय में एक अलग स्तर पर पहुँच चुकी है और अगर इनमें से कोई नहीं देखी है आपने तो मेरा दावा है आप मुल्क के बाद ये पिक्चरें तापसी की वजह से ही देखेंगे।

मैं निर्देशक अनुभव सिन्हा को बहुत बधाई दूंगा दमदारी से इस मुद्दे को अपनी फ़िल्म के माध्यम से उठाने के लिये, न्यायिक प्रक्रिया में लोगों को विश्वास बनाए रखने का कारण देने के लिए, पूर्वाग्रह से ग्रसित लोगों को आइना दिखाने के लिए, पुरूष-महिला के बीच जारी प्रतिद्वंदिता के दौर में समानता दर्शाने के लिये और ऐसे बहुत से पहलू हैं जिसे इस फ़िल्म के माध्यम से समझा/परखा जा सकता है। आप सभी पाठकों को सलाह, राय, मशविरा है कि जाइये इस दमदार पिक्चर को देखकर आइए। पिक्चर बनाने वालों के लिए नहीं, आपके ख़ुद के लिए, आपके बच्चों के लिए, आपके समाज के लिए और आपके मुल्क के लिए।

और अन्त में बस यही की,
जब हिन्दू-मुसलमान ज्यादा होने लगे तो कैलेंडर देख लीजियेगा, शायद चुनाव नज़दीक होंगे।