“वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन, उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना ही अच्छा।” ये लाइनें 2011 में बोफोर्स कांड के आरोपी क्वात्रोची पर
फैसला सुनाते वक़्त मजिस्ट्रेट विनोद यादव द्वारा कही गई थीं। क्वात्रोची को बरी कर
दिया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे शर्म की बात बताई थी कि जिस
इंसान को पकड़ने में देश के 205 करोड़ रूपए खर्च हो गए, वह
अंत में बरी हो कर निकल गया।
सीबीआई के पूर्व निदेशक विजय शंकर ने कहा था कि इसमें उनके उत्तरवर्ती
सीबीआई निदेशकों और वकील अरुण जेटली की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, जिन्होंने मामले
में ढिलाई बरती और मामले को कमजोर किया।
नतीजन क्वात्रोची को 2007 में अर्जेंटीना से भारत
नहीं लाया जा सका और अब बीजेपी के वर्तमान अध्यक्ष अमित शाह ललित मोदी विवाद में
सुषमा स्वराज का पक्ष रखने के लिए क्वात्रोची मामले को ही बेशर्मी के साथ कुतर्क के
तौर पर घसीट रहे हैं।
शाह भूल गए कि क्वात्रोची मामले में जितनी जिम्मेदारी
सीबीआई की थी, उतने ही जिम्मेदार तत्कालीन वकील और वर्तमान वित्त मंत्री अरुण
जेटली भी थे। खैर, जब हमारे प्रधानमंत्री स्वयं गलत तथ्यों के पैरोकार दिखाते हैं
तो उनकी संगति का कुछ तो असर माननीय अध्यक्ष महोदय पर भी पड़ेगा।
ललित मोदी की बात करें तो यह IPL में वित्तीय अनियमितताओं
का आरोपी हैं और एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट (ED) की गिरफ्त में
आने के डर (जिसे ललित बेबुनियाद बताते हैं) से भारत से बाहर लंदन और दूसरे शहरों
में गुजारा कर रहे हैं।
UPA2 सरकार ने ब्रिटिश
सरकार को लिखित में जानकारी दी थी कि ललित के खिलाफ मामला भारत की कोर्ट में
विचाराधीन है। ऐसे में उन्हें ब्रिटेन से बाहर जाने की इजाजत न दी जाए। इस बीच
सरकार ने ललित मोदी का पासपोर्ट भी निरस्त कर दिया था। 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम के
बाद ललित मोदी ने ट्रैवल डॉक्यूमेंट हासिल करने के लिए फिर से हाथ-पैर मारने शुरू
किए।
ललित मोदी कथित तौर पर वर्तमान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज
से भी मिले। स्वराज परिवार से ललित मोदी का सालों पुराना रिश्ता है। यह बात उसने इंडिया
टुडे को दिए इंटरव्यू में स्वीकार की। अगस्त 2014 में ललित मोदी
ने भारतीय विदेश मंत्रालय से मदद मांगी ताकि ब्रिटिश सरकार उसे ट्रैवल डॉक्यूमेंट दिलवाए।
उनकी दलील थी कि पत्नी मीनल मोदी का पुर्तगाल के अस्पताल में इलाज चल रहा है, जहाँ
ऑपरेशन के लिए पति होने के नाते उनका मौजूद होना और हस्ताक्षर करना जरूरी है। हालांकि,
कानूनन ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पहले ब्रिटिश हाई कमिश्नर से
बात की और फिर ब्रिटिश सांसद कीथ वाश से बात करके उन्हें पत्र भेजा। तब जाकर ललित मोदी को ट्रैवल डॉक्यूमेंट मिल
सका।
गौर करने वाली बात यह भी है कि यूएन के भ्रष्टाचार विरोधी
कानून, 2002 पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, जिसके तहत
पद का दुरुपयोग कर किसी व्यक्ति की मदद करना/फायदा पहुंचाना भी भ्रष्टाचार
कहलाएगा। बावजूद इसके FEMA कानून, कंपनी लॉ, आयकर कानून के अंतर्गत
अपराधी पाए गए एक भगोड़े की मदद की गई।
यहां कई सवाल खड़े होते हैं। क्या सुषमा स्वराज ने निजी सम्बन्धों के चलते मोदी की मदद
की? विदेश मंत्री के
इस कदम की जानकारी प्रधानमंत्री को थी? आखिर ऐसी क्या मज़बूरी थी कि कानून से भाग रहे व्यक्ति की इस
तरह मदद करनी पड़ी? पूर्व सरकार
द्वारा दूसरे देश से लिखित में किए गए ऐसे संवेदनशील संवाद के बाद भी क्या यह कदम
उठाना उचित था?
जब इस विषय पर जानकारियां एकत्र कर रहा था, तभी एक और
जानकारी मिली कि अपनी पत्नी के ऑपरेशन के 3 दिन बाद ललित
मोदी स्पेन के एब्ज़ा में अपनी पत्नी मीनल के साथ जश्न मने रहे थे। तो ऐसी कौन सी
बीमारी थी, जिसके कारण उनका पुर्तगाल जाना ज़रूरी था और महज 3 दिनों के अंदर ऑपरेशन भी
हो गया और पत्नी जश्न मनाने की स्थिति में भी आ गई? अगर वक्त मिले तो
इंस्टाग्राम पर ललित मोदी की पोस्ट की हुई तस्वीरें देखिए। आप को खुद अंदाजा लग
जाएगा कि ललित ट्रैवल डॉक्यूमेंट का कितना शानदार सदुपयोग कर रहे हैं।
हालांकि, इस मामले में गलती केवल विदेश मंत्री की ही है, यह
कहना सही नहीं होगा। हो सकता है कि इसके
अंदर कुछ अलग ही राजनीति छिपी हो, जिसमें सुषमा स्वराज केवल एक मोहरा हों। इन संभावनाओं
से इनकार नहीं किया जा सकता। इतिहास के पन्नों को पलटें तो नरेंद्र मोदी से जिनकी
पटरी नहीं बैठती, वे माहिर हैं उनके लिए ऐसी परिस्थितियां निर्मित करने में,
जिसमें व्यक्ति खुद-ब-खुद रास्ते से अलग हो जाता है। इससे इन पर कोई सवाल भी नहीं
उठता।
चाहे लाल कृष्णा आडवाणी हों या मुरली मनोहर जोशी या फिर
विहिप नेता प्रवीण तोगड़िया, इनका कद एकाएक ऐसा कम हो जाएगा, किसी ने सोचा भी नहीं
होगा। कट्टर हिंदूवादी सोच रखने वाले प्रवीण तोगड़िया गुजरात से आते हैं। उनकी मोदी
से कुछ ख़ास पटरी बैठती न थी। मोदी उस समय
गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो उन्होंने तोगड़िया को विहिप का अंतरराष्ट्रीय
प्रमुख बनवा दिया, जिससे वे देश में कम (खासकर गुजरात से बाहर) और मुख्यतः विदेशों
में ज्यादा रहे। आडवाणी और जोशी सांसद होने के नाते, सक्रिय राजनीति में हैं
तो ज़रूर, पर अब तो वे शहीदों, पूर्व नेताओं की जन्मदिन-पुण्यतिथि में उनकी
मूर्तियों के सामने श्रद्धांजलि देते तक दिखाई नहीं पड़ते।
ऐसा ही कुछ लोकसभा में विपक्ष की पूर्व नेता और मौजूदा
विदेश मंत्री के साथ भी होता दिखाई पड़ रहा है। 2009-14 तक संसद में
विपक्ष की अगुवाई करने वालीं सुषमा अपनी दमदार छवि की वजह से प्रधानमंत्री पद के
दावेदारों में शामिल थीं। उन्होंने मोदी के
प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर कुछ नाराज़गी भी ज़ाहिर की थी, पर बाद में एक समझदार नेत्री की तरह पार्टी और मोदी, दोनों का
समर्थन किया।
पीएम मोदी ने जब इन्हें विदेश मंत्रालय का प्रभार सौंपा,
तभी सवाल उठ रहे थे कि क्या यह सुषमा को विदेश मंत्रालय की आड़ में कांटों भरा ताज
पहनाया जा रहा है? रातनीतिज्ञ
पंडितों ने तो तभी कयास लगा डाले थे कि बस कहीं कुछ ऊंच-नीच हुई और सुषमा को भी
बाकी वरिष्ठ नेताओं की तरह गुम होने में वक्त नहीं लगेगा। क्या ललित मोदी विवाद भी
उसी का हिस्सा है? राजनीतिक दलों
में अंदरूनी गुटबाजियां आम हो चली हैं। बीजेपी भी इससे अछूती नहीं है। तो क्या यह
सुषमा के आडवाणी गुट से जुड़े रहने का परिणाम है? अब देखना रोचक होगा कि क्या सुषमा स्वराज का
नाम भी ‘मार्गदर्शकों’ आडवाणी, जोशी की तरह गुमनाम ‘दर्शक’ होने की राह पर है?