गुरुवार, 20 जुलाई 2017

बटुकेश्वर दत्त, इतिहास और व्यवस्था



हम इस दौर में हैं जहाँ लोग खुद को देशभक्त बतलाने में तो सामने वाले को देशद्रोही का प्रमाण पत्र देने में मिनट की देरी नहीं करते। उन लोगों तक बात पहुँचनी चाहिए की देशभक्ति क्या है? देशभक्ति की परिभाषा का उन्हें ज्ञान ही नहीं। फिर जब देशभक्ति नहीं पता तो किस आधार पर सामने वाले को आप देशद्रोही होने का प्रमाण पत्र देते फिरते हैं। वैसे एक बार के लिए अगर मान भी लें कि आप देशभक्त हैं तो भी इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता , हमारी व्यवस्था ने, समाज ने जब बटुकेश्वर दत्त जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को, क्रांतिकारी को भुला दिया तो आप कौन हैं? बटुकेश्वर दत्त को जानते हैं? ये वही हैं जिन्होंने शहीद भगत सिंह के साथ मिलकर सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली, दिल्ली में बम फोड़ा था, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए और अपनी गिरफ्तारी दी थी। आज़ादी के समय बटुकेश्वर दत्त जिंदा थे पर गुमनामी ने उन्हें अपनी आगोश में लेना शुरु कर दिया था।





जीविका चलाने के लिए सिगरेट फैक्टरी के इर्द-गिर्द घूमना, बिस्किट-डबलरोटी की फैक्ट्री में काम करने से लेकर बस चलाने के लिए परमिट लेने तक ना उनका इंक़लाब जिंदाबाद लगाने का नारा काम आया ना ही उनकी देशभक्ति। हमारी व्यवस्था कैसी है उसका उदाहरण देखिए कि जब बस चलाने के लिए परमिट लेने पटना हाई-कमिश्नर के पास गए तो उनसे बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण मांगा गया।

अगर तब के राष्ट्रपति  स्व. राजेन्द्र प्रसाद जी तक बात ना पहुँची होती और उन्होंने कमिश्नर से दत्त को जानने की बात ना कही होती तो शायद चप्पल घिसते हुए ही दत्त का बाकी जीवन निकलना था, जैसा प्रायः सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने वालों का निकलता है। जितना संघर्ष दत्त ने आज़ादी पूर्व नहीं किया उससे कई ज्यादा संघर्ष उन्हें आज़ाद भारत में करना पड़ा। जिस दिल्ली में उन्होंने अपनी हिम्मत का परिचय दिया, भरी असेम्बली में बम फोड़ा, उसी दिल्ली में अंतिम समय में एक अपाहिज होकर जाना उनके लिये किसी विडम्बना से कम नहीं था। केंसर से पीड़ित दत्त ने पटना में ही अपना ज्यादा समय बिताया।  उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव के पास ही किया जाए I तो भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में उनका अंतिम संस्कार आज ही के दिन 20 जुलाई 1965 को किया गया। शायद यही एकमात्र सम्मान हमारी व्यवस्था ने उन्हें दिया है।

आप बटुकेश्वर दत्त या उनके जैसे वीरों का ज़िक्र शायद ही कहीं पाएंगे। जितनी आसानी से आपको गोडसे पढ़ने मिल जाएगा उतनी आसानी से दत्त नहीं मिलेंगे। हमारी व्यवस्था, हमारा समाज मरने के बाद ही याद करता है, चाहे बटुकेश्वर दत्त हो या हम-आप में से कोई सामान्य व्यक्ति। फूल-माला, दो मिनट का तवज्जो सब जाने के बाद ही नसीब होते हैं। वैसी ये भी व्यवस्था का ही हिस्सा है कि आज राष्ट्रपति चुनाव के आने वाले परिणाम, हार/जीत के बीच किसी राजनेता ने उनकी पुण्यतिथि पर हुसैनिवाला जाना तो दूर उन्हें श्रद्धांजलि तक अर्पित नहीं की।  ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो सवाल उत्पन्न करती हैं, खीज उत्पन्न करती हैं। क्या जरुरत थी उस 19 वर्ष के युवक को अग्रेजों के सामने असेम्ब्ली में बम फोड़ने की? गिरफ्तारी देने की? क्यों जवानी का समय अंग्रेजों की जेल में संघर्ष करते बिता दिया? दोस्तों के पास मुखाग्नि के अलावा क्या नसीब हुआ उन्हें? ऐसे अनेक सवाल हैं, जिनका जवाब शायद किसी के पास नहीं।

देशभक्ति बहुत बड़ी चीज़ है और देशद्रोह भी। चालू भाषा में, चलते-फिरते इनका उपयोग करना, प्रमाण पत्र बाँटते फिरने की आपकी-हमारी औकात नहीं है। ये केवल  अल्फाज़ नहीं हैं, हमारी स्वतंत्रता का, स्वतंत्रता आन्दोलन का सार है इन शब्दों में। अपना मत रखिये, वाद-विवाद करिये पर खुद को या आप जिस विचारधारा को मानते हैं उसे ही देशभक्त और अन्य को देशद्रोही मत साबित करने लगिये। जब व्यवस्था ने बटुकेश्वर दत्त को नहीं बक्शा तो आप-हम क्या चीज़ हैं! इतिहास पढ़िए, समझिये और सवाल उठाइये, क्योंकि

"The More You Know, Then You know, How Less You Know"


महान क्रांतिकारी स्व बटुकेश्वर दत्त को शीश झुकाकर नमन...


हर्ष दुबे