मंगलवार, 15 मई 2018

वाराणसी की घटना से सीख ले छत्तीसगढ़ शासन


माननीय मंत्री जी
लोक निर्माण विभाग
छत्तीसगढ़ शासन।

उत्तरप्रदेश के वाराणसी में 15मई2018 को निर्माणाधीन फ्लाई-ओवर के गिर जाने से रूह कँपा देने वाली घटना हुई है। घटना वाराणसी केंट रेल्वे स्टेशन के पास के अति व्यस्ततम इलाके में हुई है।
क्षेत्रीय, राष्ट्रीय अख़बारों की मानें तो कल दोपहर में फ्लाईओवर का जो हिस्सा गिरा उसके तब उसके नीचे आधा दर्जन से अधिक कार, ऑटो, दो बसें और दर्जन भर से ज्यादा लोग थे जिन्हें देर रात तक निकाला नहीं जा सका है और राहत एवं बचाव कार्य की टीम उस हिस्से को हटाने एक दर्जन से अधिक क्रेनों के साथ संघर्ष कर रही है। आपको यह भी बताना चाहूंगा कि जो हिस्सा कल गिरा वह तीन माह पूर्व ही बना था।

आप सोच रहे होंगे कि उत्तरप्रदेश की घटना की जानकारी मैं इतने विस्तार से छत्तीसगढ़ शासन के मंत्री को क्यों दे रहा हूँ, तो मंत्रीजी इसके दो कारण हैं।
पहला कि कल ही कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आए हैं जिसमें आप के दल ने बड़ी जीत हासिल की है। जिसके चलते तमाम भाजपा कार्यालयों में दोपहर से आतिशबाजियां हो रही थीं और राजधानी रायपुर के भाजपा कार्यलय में भी वही माहौल देखा गया (जिसके छायाचित्र सभी स्थानीय अख़बारों में हैं)। तो जीत की खुशी और आतिशबाजी के शोर में आपतक वाराणसी में घटे घटना की ख़बर शायद ना पहुंची हो। इसलिये आपके जानकारी में लाने का विचार आया।
दूसरी वजह यह है कि वाराणसी के सबसे व्यस्त इलाके में जैसा निर्माणकार्य हो रहा है उसी तरह का निर्माणकार्य राजधानी रायपुर के सबसे अधिक व्यस्त मार्ग जीई रोड पर आपके विभाग द्वारा भी किया जा रहा है, 'स्काई-वाक'। जिस प्रकार सुरक्षा के सारे नियम कानून ताक में रख कर वाराणसी में कार्य चल रहा था बिल्कुल उसी प्रकार 'स्काई-वाक' का भी कार्य बिना सुरक्षा को ध्यान में रखे जारी है।
निर्माणकार्यों के अंतर्गत आने वाले नियमों की मानें तो उसमें सीधे-सीधे लिखे होता है कि निर्माणाधीन सड़क पर आवाजाही बंद कर ट्रैफिक को दूसरे मार्ग से डाइवर्ट किया जाना है और जहां ट्रैफिक डायवर्ट करना सम्भव ना हो तो वहां निर्माण कार्य केवल रात में चलाए जाएं। मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि तमाम नियम कानून को खूंटी पर टांग कर आपके विभाग द्वारा निर्माणकार्य किया जा रहा है, जिससे ऐसी घटनाओं को आप और आपका विभाग स्वयं आमंत्रित कर रहा है।

कल की वाराणसी की घटना एक बहुत बड़ी चेतावनी है उन तमाम विभागों को जिनके अन्तर्गत शहर के विभिन्न हिस्सों में निर्माणकार्य चल रहे हैं। जीवन में सीख लेने के लिए हर गलती को स्वयं करना ज़रूरी नहीं, हमें दूसरों की गलती से भी सीख ले लेनी चाहिए और वाराणसी की घटना आंखें खोलने काफ़ी है।

टीवी चैनलों के माध्यम से देखा जा सकता है कि घटना के बाद से आमजनता में कितना रोष है और लोग सीधे तौर पर इसे शासन की लापरवाही बता रहे हैं। घटना के बाद भी गिरे भाग को हटाने कटर नहीं लाया जा सका जिससे साफ है कि शासन का रवैया कई घण्टों तक उदासीन रहा और व्यस्त मार्गों में भीड़ को काबू कर पाना एक बड़ी चुनौती होती है। इस वजह से राहत एवं बचाव कार्य मे लगी टीम को भी अनेक दिक्क़तें हो रही थीं।

आपको आमजनता को बताना चाहिए कि किसी अप्रिय घटना से निपटने के लिए इन निर्माणकार्यों में क्या आपके विभाग द्वारा क्या व्यवस्था की गई है? सुरक्षा के क्या इन्तज़ाम किये गए हैं?
वैसे व्यवहारिक रूप से देखा जाए तो 'स्काईवाक' का निर्माण ही औचित्यहीन है। आमजनता के तमाम विरोध के बावजूद किस कारण से, किस सर्वे रिपोर्ट के आधार पर यह निर्माणकार्य कराया जा रहा है आपका विभाग इतने महीनों बाद भी बताने में अस्ममर्थ है।

आपसे आग्रह है कि आमजनता की सुरक्षा को देखते हुए और वाराणसी की घटना से सीख लेते हुए 'स्काईवाक' सरीखे राज्य के सभी शहरों के अंदर के तमाम निर्माणकार्यों में अप्रिय घटनाओं से निपटने, सुरक्षा व्यवस्था बनाए बिना निर्माणकार्यों को जहां ज़रूरत हो उन्हें बन्द किए जाएं और बाकी जगह पूरी व्यवस्था के बाद ही कार्य आगे बढ़ाया जाए।

शुक्रवार, 11 मई 2018

चुनावी वर्ष: दफ़्तरों के चक्कर काटते "वोटर" , जूझते अधिकारी और हाथ जोड़ मुस्कुराते नेताजी।


वर्ष 2018 के अंत में हमारे प्रदेश छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। तीन पारी पूरी कर चुके सूबे के मुखिया डॉ रमन सिंह पूरी ताकत से चौका मारने की तैयारी कर रहे हैं और विपक्ष उनके विजय रथ को रोकने पूरी ताकत से अधूरे वादे, घोटालों की सूची और तमाम जोड़-तोड़ के साथ सरकार को घेरने कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।

यह जीत दोनों दलों के लिये महत्वपूर्ण है। एक तरफ़ सबसे लंबे कार्यकाल वाले बीजेपी के मुख्यमंत्री बन चुके डॉ साहब की साख है तो दूसरी ओर 14बरस से सत्ता से दूर वनवास काट रहा विपक्ष। साल 2018 की शुरुआत से ही डॉ साहब कोरिया जिले से लेकर सुकमा जिले तक के दौरे कर रहे हैं कभी लोक सुराज के बहाने तो कभी विकास यात्रा के बहाने।

चुनावी वर्ष होने की वजह से सरकार और उनके नुमाइन्दे सुनियोजित तरीके से आमजनता के बीच जाना चाहते हैं। तो साल 2018 की शुरुआत लोक सुराज अभीयान के प्रथम चरण (12-14 जनवरी के बीच) में आमजनता से दिक्कतों, शिकायतों, समस्याओं के आवेदन मांगे गए। अब इन आवेदनों को इकट्ठा कौन करेगा? जिला प्रशासन।
लाखों की संख्या में आवेदन आए फ़िर जनवरी से मार्च तक चले द्वितीय चरण में आवेदनों का निपटारा करना था (कितनों का निपटारा हुआ? यह सवाल वैसा ही है जैसा भाग-दो आने से पूर्व था कि 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?'
पर धरातल की बात यह है कि शायद ही कोई आवेदनकर्ता मिलेगा जो कहे कि उसके आवेदन का निपटारा हो गया है।
इस बीच फरवरी माह में बजट सत्र आरंभ हुआ, जिसमें कम पढ़े-लिखे, अनपढ़, वाचाल और कुछ जिम्मेदार मंत्रियों से सदन में पूछे गए सवालों का उन्हें जवाब देना होता है। जवाब कहाँ से आएगा? विभागीय अधिकारी/कमर्चारी/जिला प्रशासन से। तो फरवरी में सराकरी अमला आंकड़े इकट्ठे करने और जवाब बनाने में व्यस्त था।
ऐसा करते हुए दो माह बीत गए। लोक सुराज के तृतीय चरण में डॉ साहब ने हेलीकॉप्टर निकलवाया और कहा स्वयं पन्द्रह दिनों तक औचक निरीक्षण करने निकलेंगे फिर किसी भी गांव/कस्बे/जिला मुख्यालय में उतर जाएंगे।
हालांकि सभी जानते हैं इसमें औचक जैसा कुछ होता नहीं है।यहाँ आवेदन मांगने से निपटारे तक हर चीज़ वैसे ही स्क्रिप्टेड है, जैसे हेलीकॉप्टर का फलाँ तारीख को फलाँ जगह उतरना। पर चुनावी वर्ष है जनता के सामने मुँहदिखाई तो जरूरी है, फिर क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि की पीठ थपथपानी है, उम्मीदवारी हेतु टोह भी लेना है तो भाई भूमिका बांधनी पड़ती है ना और दो-चार को डांटना-डपकरना भी पड़ता है। तभी दिल्ली हाई कमांड से सत्ता पक्ष के जनप्रतिनिधियों को 'जन-सम्पर्क यात्रा' निकालने का भी फ़रमान आ गया। इस प्रकार चुनावी वर्ष के तीन माह बीत गए।

इन सब के बीच दो वर्ग ऐसे हैं जो कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। साथ भटक रहे हैं, साथ जूझ रहे हैं। पहला वर्ग है सरकारी दफ़्तरों में काम करने वाले अधिकारियों/कमर्चारियों का। सुराज हो या यात्रा, हेलिकॉप्टर से हो या पैदल सारी की सारी "व्यवस्थाओं" का जिम्मा इस वर्ग के ही हिस्से ही आता हैं। तो वहीं दूसरा वर्ग कहलाता है "वोटर" जो राशन कार्ड बनवाने, जमीन रजिस्ट्री करवाने, नक्शा पास करवाने, साफ पानी मांगने उन्हीं सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रहा है। इस दूसरे वाले वर्ग की भूमिका नेताजी लोगों को केवल वोट डालने तक सीमित है इससे ज्यादा कुछ नहीं। वह जब नक्शा पास करने कहता है तो जवाब मिलता है, 'साहब सुराज में व्यस्त हैं'। वह जब साफ़ पानी मांगता है तब साहब या तो 'औचक निरीक्षण' में आए हेलीकॉप्टर की धूल खा रहे होते हैं या मंत्रीजी/विधायकजी की रैली में कदमताल करते भावी नेताओं के कोल्ड ड्रिंक, पानी की व्यवस्था में लगे होते हैं।

इस सरकारी दफ़्तर वाले अधिकारी/कर्मचारी और उनके चक्कर काटते "वोटर" की स्थिति अमूमन सभी राज्यों में एक समान होती है। जिसके हिस्से आता है धूल, मिट्टी, धूप, बारिश ठंड और हाथ जोड़े नेताजी की हंसी इससे इतर कुछ नहीं।

आज ज़रूरत है इन दोनों वर्गों को अपने अधिकारों को जानने, समझने की। कार्यपालिका को ज़रूरत है फ़िजूल के फर्जी आदेशों को 'ना' कहने की। अपने परिवार, दोस्तों, बच्चों के साथ छुट्टियां मनाने जाने की क्योंकि मंत्रीजी वाली स्वतंत्रता इन्हें नहीं है कि 'शहर/गांव/कृषि/अधोसंरचना के विकास' को समझने ब्राज़ील, इज़राइल, दक्षिण अफ्रीका के चक्कर लगा आएं। इनके पास तो समय और आय दोनों सीमित है, उसमें भी डाका डाल देंगे तो कैसे चलेगा सर।
रही बात "वोटर" की तो इन्हें ज़रूरत है, इस "वोटर" मात्र के दर्जे से उठ कर उसके हक़ में आने वाली सुविधाओं को छाती ठोक कर मांगेने की। केवल यही तरीका है जिससे इन फ़िजूल की यात्राओं, निरीक्षणों की आड़ में बहाए जा रहे पैसों की बर्बादी और कार्यपालिका और जनता की ऊर्जा की बर्बादी को रोका जा सकता है।

सरकारें जिस भी दल की हों, ज़रूरत है इस ओर विचार करने की कि इसके पहले कि कोई हक़ के लिये खड़ा हो जाए या कोई मुँह पर ना कह दे खुद में सुधार ले आया जाए, क्योंकि
"अति सवर्त्र वर्जयेत"।

जाते-जाते एक जानकारी साझा करता जाऊं, कि मई माह की 12 तारीख़ से रमन सरकार प्रदेश भर का चक्कर लगाने "विकास यात्रा" की शुरुआत कर रही है।

"इति श्री चुनावी वर्ष कथा..."

बुधवार, 2 मई 2018

उदासीन सत्ता और लाल आतंक के बीच संस्कृति बचाने में प्रयासरत आदिवासी समाज

"ऐ जाने वफ़ा ये ज़ुल्म ना कर, गैरों पे करम अपनों पे सितम
.....
मर जाएंगे हम, ये ज़ुल्म ना कर, गैरों पे करम अपनों पे सितम.."

ये बोल हैं 1968 में आई फ़िल्म 'आंखें' में माला सिन्हा-धर्मेंद्र पर फिल्माए गए एक गाने के। आज इसकी प्रासंगिकता छत्तीसगढ़ के आदिवासियों से है, जो अपनी संस्कृति बचाने संघर्षरत है। ये बोल सरकार की तरफ से हो रही उनकी अनदेखी और 'अंदर वाले' (यही सम्बोधन करते हैं गाँव के लोग नक्सलियों को) की तरफ़ से उनपर हो रहे सितम, ज़ुल्म को बयां करते हैं।

ये वही आदिवासी हैं जिनके हित की रक्षा करने के मकसद से 18 वर्ष पूर्व सन 2000 में मध्यप्रदेश का विभाजन कर छत्तीसगढ़ प्रदेश बनाया गया। 2011 सेंसस के अनुसार प्रदेश की आबादी 2.5करोड़ आंकी गई जिसमें लगभग 33प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी है। प्रदेश के उत्तर में सूरजपुर जिले से लेकर दक्षिण में सुकमा जिले तक लगभग 42 जनजातियां प्रदेश में निवासरत हैं जो अपने अस्तित्व को बचाए रखने संघर्षरत हैं और नित नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।

छत्तीसगढ़ की पहचान घोर नक्सल प्रभावित राज्य के रूप में हो चुकी है जिसके लिए सरकार और मीडिया दोनों बराबर रूप से जिम्मेदार हैं। हालिया चुनिंदा रिपोर्टों को छोड़ दें तो मिडिया ने छत्तीसगढ़ को तभी तवज्जो दी है जब-जब यहां की धरती लाल हुई है।

चाहे प्राकृतिक संसाधनों के भंडारण/उत्पादन की दृष्टि से हो या ऐतिहासिक महत्व या प्राकृतिक सुंदरता किसी भी दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ राज्य देश के अन्य राज्यों से कमतर नहीं है। परन्तु जिस प्रकार इंसान की 99 अच्छाइयां होने के बावजूद चर्चा 1 बुराई की ही होती है, वही हाल छग प्रदेश का है, जिसके लिये मीडिया और सत्ता पक्ष दोनों बराबरी के गुनहगार हैं।

प्रदेश की एक तिहाई जनसंख्या आदिवासी समाज की है जिनकी प्रवृत्ति, जिनका स्वभाव नितांत सरल है और इसी सरल स्वभाव के चलते सत्ता और नक्सलियों के बीच सबसे ज्यादा पिस भी यही समाज रहा है। इनकी सरलता की आड़ लेकर तमाम लोग मौज कर रहे हैं, फल-फूल रहे हैं। आदिवासी समाज की स्थिति में कुछ ज्यादा परिवर्तन आ गया हो ऐसा कहना उनके साथ बेईमानी होगी।


हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य प्रगति की ओर अग्रसर है, कई नई ऊंचाइयां छू रहा है, बाकी राज्यों को कई पैमानों में टक्कर देने के साथ उनसे आगे भी है, पर आदिवासी समाज की स्थिति ऊपर और नीचे के दांतों (सत्ता और नक्सली) के बीच फंसे जिव्हा जैसी है।

नेता आते हैं जल-जंगल-जमीन की बातें करते हैं, मुख्यधारा (हालांकि मेरा मानना है कि जिन्हें सरकार मुख्यधारा से जोड़ने की बात करती है असल में वे लोग मुख्यधारा में ही हैं और हम-आप भटक चुके हैं) से जोड़ने की बातें करते हैं पर जमीनी हक़ीक़त कुछ और ही बयां करते हैं।

आज जरूरत है दांतों के बीच फंसे उस जिव्हा को निकालने की जिससे वह खुल कर जी सके। सत्ता पर आसीन नीति निर्माताओं को जरूरत है संवेदनशीलता के साथ आदिवासी समाज से चर्चा करे, उनकी ज़रुरतों को, अपेक्षाओं को पूरा करने नीति निर्धारित करे। नक्सली समस्या को जल्द से जल्द ख़त्म करें। वहीं मीडिया को जरूरत है दिल्ली के स्टूडियो से बाहर निकल कर छत्तीसगढ़ में आए जमीनी तौर पर देखें, समझें और रिपोर्टिंग करे क्योंकि राज्य से बाहर आमजनता के बीच अभी जो धारणा छत्तीसगढ़ राज्य को लेकर इतने वर्षों में मीडिया ने बनाई है वह केवल एक पहलू है उससे इतर इस राज्य में रामायण काल से लेकर बुद्ध के विहार, जैन तीर्थ, बाबा घासीदास के सन्देश, मानव की आवाज़ निकालने वाली मैना, हीरे का भण्डार, चित्रकूट जलप्रपात सहित अनगिनत चीज़े हैं। ज़रूरत है खून, शहादत, लाल आतंक से इतर छत्तीसगढ़ की बाकी अच्छाइयों को लोगों तक पहुंचाने की।

" माना की अंधेरा घना है, पर दिया जलाना कहाँ मना है "

निश्चित रूप से मीडिया सहित लोकतंत्र के चारों स्तम्भ अगर संवेदशीलता के साथ इस ओर कदम बढ़ाएं अंधेरा भी छंटेगा, आदिवासी समाज अपने इच्छानुरूप, अपनी संस्कृति को बचाते हुए बढ़ भी सकेगा और छत्तीसगढ़ राज्य से लाल आतंक वाला उपनाम भी हटेगा।